कितना दिल रोया मेरा उस रात को मै क्या बताऊँ…
मै ख़ुद ही गुनहगार अपनी महोब्बत का फिर किस्सा ये कैसे सुनाऊ…
चांदनी थी रात लेकिन घर में अँधेरा घना था…
लोग बहार हंस रहे थे और मै यहाँ आसुओं में सना था…
किसको कहता मै बुरा ये बात समझ ना आ रही थी…
सांसे तो चल रही थीं मेरी मगर जान छोड़े जा रही थी…
कहते हैं प्यार महोब्बत की कोई जात नहीं होती है…
ये तो ख़ुदा का तोहफ़ा है जो उसके जैसे ही पाक होती है…
मगर ये जालिम दुनिया वाले महोब्ब्त में भी मज़हब को खोज लेते हैं…
समाज के नाम पर हम जैसे प्यार करनेवालों की सब खुशिओं को नोच लेते हैं…
मैं मुसलमान था हिन्दू लड़की से प्यार करने की भूल कर बैठा…
दुनिया से लड़ जाता मगर कैसे उससे लड़ता जो ख़ुद मेरे ही घर में बैठा…
उसको अलविदा कहना पड़ा क्योंकि हालात ही कुछ ऐसे ही बने थे…
“हम या फिर वो लड़की” मेरे अपनों के ऐसे सवाल मेरे सामने खड़े थे…
मैंने उसके ही कहने पर चुना माँ बाप को और उस मासूम का दिल तोड़ आया…
जो थी मेरे भरोसे पर मैं उसका साथ ही छोड़ आया…
मैं उससे कहना चाहूँगा की महोब्बत उसके लिए हमेशा मेरे दिल में जिंदा रहेगी…
मै उसकी हर मुसीबत में एक ढाल की तरह खड़ा मिलूँगा, जब जब वो दिल से मेरा नाम कहेगी……