सात चिरंजीवी जो आज भी जिंदा है - कलियुग का अंत कैसे होगा - कलिराज और कल्की अवतार का युद्ध कैसे होगा ?


हिन्दू पौराणिक धर्म ग्रंथों में कहीं साथ तो कहीं पर आठ चिरंजीवी का उल्लेख किया गया है।
     क्यों इस ब्रह्मांड के अंत तक जीवित है हमारी आज की यह कहानी सतयुग द्वापर और त्रेता युग के महान योद्धाओं की कहानी है जो मौत को भी मात दे चुके हैं और जो समय की सीमा से परे जा चुके इन चिरंजीवी की कहानी पर अगर आपको विश्वास न हो तो कोई जाकर पूछे पृथ्वीराज चौहान से कि जब वह जंगलों में भटक रहे थे तो उनका सामना किस्से हुआ था कोई जाकर पूछे तुलसीदास की रामायण और रामचरित मानस में बदलने की क्षमता उन्हें किसने और अगर जीवन और मृत्यु का चक्र तोड़कर यह चिरंजीवी आज भी जीवित है तो उन्हें कीसकी प्रतीक्षा है। और उनकी प्रतीक्षा कभी समाप्त होगी या नहीं।
    अगर होगी तो कब खत्म होगी।  

    कहां है ये साथ चिरंजीवी 

    किस रूप में है । क्यों नहीं आते यह हमारे सामने और यह सामने आ गए तो क्या होगा।
    इन साथ चिरंजीवी की अनोखी कहानी आपको एनर्जी कंजर्वेशन थियरी और इन्फिनिटी के रहस्य बता सकती है
    यह आपको मृत संजीवनी और अमरत्व का महत्व समझा सकती है।  चिरंजीवी की यह कहानी युगों की प्रतीक्षा की एक ऐसी दास्तान है जो सतयुग से शुरू होकर कलियुग के अंत तक चलने वाली है। अब इस पूरी कहानी बहुत से सवाल जुड़े हुए हैं सवाल यह है कि कौन है ये सब चिरंजीवी  या
    अगर इनका अस्तित्व आज भी है आखिर है कहा । क्या सच में हमारे युग का यानी कलयुग का अंत होने वाला है । क्या सच में पृथ्वी पर कल्कि का प्रलय आने वाला है।
    क्या यह ब्रह्मांड एक बार फिर नए सिरे से नए जीवन की शुरूआत करने वाला है और 

    कौन है कल्की राज का रहस्य क्या है।

    शुरुआत करते हैं एक सवाल से क्या आप जानते हैं कि रामायण का सबसे खूबसूरत डाक्टर कौन सा है। बिल्कुल रामायण के हीरो जहां श्री राव है वहीं रामायण का सबसे खूबसूरत गरक तो है अनुभव जिन्हें हम रूबरू या यूं कहें कि शिव का अवतार भी मानते हैं । 
    हनुमान जी का नाम प्राचीन भारत के श्लोकों में तो चिरंजीवी की सूची में सम्मिलित है। अब सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि जब श्री राम अपनी देह त्याग इस दुनिया को छोड़कर चले गए तो हनुमान आज भी यहां क्यों है और इस ब्रह्मांड के अंत तक उनके बने रहने का उद्देश्य क्या है। लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि वह मौत या यूं कहें चिरंजीवी कैसे बनें
    रामायण में इन प्रश्नों का उत्तर मिलता है।
    कहा जाता है कि जब हनुमान राम का संदेश सीता मैया के पास लंका ले गए तब सीता माता जो पिछले कई महीनों से पीड़ा में थे । उनकी पीड़ा हनुमान के इस संदेश से काफी हद तक दूर हुई और इसीलिए उन्होंने हनुमान को वरदान दिया कि वह ब्रह्मांड के अंत तक जीवित रहेंगे।
    हनुमान जी चिरंजीवी क्यों है ? 
    इस बात का उत्तर उनकी बचपन की घटना से भी मिलता है। बचपन में हमारे इंडियन सुपर हीरो हनुमान जी आसमान में चमकते लाल सूरज को फल समझकर बादलों के भी उस पार चले गए थे और वह सूरज को निकलने ही वाले थे कि तभी इंद्र ने उन पर अपने से प्रहार किया और इससे वह धरती पर आ गिरे।  हनुमान जी इतने अधिक घायल हो चुके थे कि उनका बच पाना भी संभव न था तब पवन देव क्यों हनुमान जी के पिता कहे जाते हैं उन्होंने पूरी दुनिया की हवा ही रोक दी हवा के बिना किसी का भी बच पाना संभव न था।
    ऐसे में तैंतीस कोटि देवी देवताओं ने न सिर्फ हनुमान को ठीक किया बल्कि उन्हें बहुत सारी शक्ति दी और ब्रह्मांड के अंत तक हमेशा जीवित रहने का वरदान भी दिया न सिर्फ रामायण की कहानियों में बल्कि रामायण के बाद महाभारत में भी हनुमान जी का उल्लेख मिलता है।
    हनुमानजी ने रामायण काल के बाद महाभारत में भीम के साथ युद्ध किया था और और जो भी महाभारत के युद्ध से पहले उनसे सहायता मांगने गए थे तब उन्होंने सीधे तौर पर सहायता करने के बजाय अर्जुन के रथ के ऊपर बैठना सही समझा और इसीलिए अर्जुन को कोई हरा नहीं पाया कलियुग में महान कवि तुलसीदास जी का कहना था कि उन्हें रामायण की पूरी कथा हनुमान जी ने खुद सुनाई थी और तभी जाकर उन्होंने इतनी सुंदर रामचरित मानस की चौपाइयों और हनुमान चालीसा की रचना की थी।
    ऐसी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हनुमान चिरंजीवी भी क्यों है यह तो आप समझ गए होंगे। 
    अब दूसरा प्रश्न यह है कि अगर वह आज भी जीवित है तो इस समय कहां है और वह सामने क्यों नहीं आते श्रीलंका के लोगों का मानना है कि पी दूरी में एक ट्राइबल कम्युनिटी है जो हनुमान को अपने इष्ट मानती है और वह इकतालीस साल में चरण पूजा करते हैं। 
    उनका मानना है कि हर इकतालीस साल में चरण पूजा के समय हनुमान जी वहां आते हैं। 
    उस समय वहां पर एक बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाता है। उसके साथ ही यह भी माना जाता है कि रामेश्वर धाम के पास गंधमादन पर्वत में हनुमान जी अपनी तपस्या में लगे हुए हैं वहीं श्रीमद भगवत पुराण के अनुसार हनुमान आज भी कि पुरुष में जीवित है
    कि पुरुष आज के सिपुर्द सृजन को कहा जाता है वहीं कुछ पौराणिक कथाएं यह भी कहती है कि जब रावण को मारने के बाद श्री राम अयोध्या से अपनी देह त्याग कर वापस अपने लोक जाना चाहते थे उस समय हनुमान जी ने पूरी अयोध्या को घेर रखा था किसी भी रास्ते से श्री राम को ले जाने यमराज नहीं आ पा रहे थे और राम जी अच्छी तरह से जानते थे कि हनुमान के रहते हुए ऐसा संभव नहीं था इसलिए उन्होंने एक योजना बनाई उन्होंने अपनी अंगूठी सरयू नदी में डाल दी और हनुमान से कहा कि वह अंगूठी सीता की आखिरी निशानी है और अब हनुमान जाकर सरयू नदी के अंदर से उस अंगूठी को निकालकर लाए हनुमान जी ने ऐसा ही किया लेकिन सरयू नदी
    उस अंगूठी को ढूंढते ढूंढते वह पहुच गए पाताल और वहां उनकी भेंट हुई भगवान शिव के गले की शोभा बढ़ाने वाले
    वासुकी नाग वासुकी ने हनुमान से पूछा कि वह यहां क्यों आए तो हनुमान जी ने उन्हें पूरी कहानी बताई तब वासुकी ने एक और इशारा किया और कहा देखो वहां पर श्री राम की
    अनगिनत अंगूठी पड़ी हुई है तुम श्री राम जी की अंगूठी को लेने आए हो तुम स्वयं जाकर ढूंढ लो हनुमान जी तब घबरा गए तो उन्होंने देखा कि अंगूठी उसे पूरा पहाड़ बना हुआ है और हर अंगूठी दिखने में एक जैसी है। सब पर राम लिखा हुआ था
    हनुमान जी की नजरों ने पहचान लिया कि हर एक अंगूठी श्री राम की है लेकिन इसका रहस्य  न जान पाए तब वासुकी ने समझाया यह दुनिया एक नहीं है ऐसे कई ब्रह्मांड है और हर ब्रह्मांड में एक राम है एक हनुमान है और ऐसी ही एक अंगूठी है। यहां पर हम आपको बहुत ही इंटरेस्टिंग फैक्ट्स बता दें अगर आपको लगता है कि मल्टी यूनिवर्स का कॉन्सेप्ट आपको सबसे पहले मार्वल की मूवी ने समझाया है तो आप कुछ हद तक गलत है
    क्योंकि हनुमान जी मल्टी यूनिवर्स के इस कॉन्सेप्ट को बहुत पहले रामायण में ही समझा चुके हैं अब आपको एक और इंटरेस्टिंग फैक्ट बताते है हनुमान जी जिस वासुकी से बात कर रहे थे वह वासुकी जो भगवान शिव के गले का हार है वो भी अपने आप में एक की मौत है जो तब तक जीवित रहेगा जब तक शिव है और शिव के बारे में कहा जाता है कि वह ही ब्रह्मांड की सच्चाई है और हनुमान स्वयं शिव का अवतार कहे जाते हैं। 
    इसलिए अब आप ये समझ चुके होंगे कि हनुमान मोटल क्यों है
    पर सवाल यह उठता है कि उद्देश्य क्या है हनुमान जी किसकी प्रतीक्षा में रुके हुए क्योंकि श्रीराम तो चले गए तो हम आपको बता दें कि हनुमान जी को भगवान विष्णु के सबसे आखरी अवतार कल्कि की प्रतीक्षा है।
    वह रुके हुए हैं ताकि उनकी सहायता से कलियुग के अंत में कली राज का भी अंत कर सके।
    अब सबने सुना है और हनुमान चालीसा की चौपाइयां कहती है कि हनुमान अष्ट सिद्धि और नव निधियों के दाता है उनके पास तैंतीस कोटि देवी देवताओं की शक्तियां है तो हनुमान जी रुके हुए हैं ताकि वह कल्की को अष्ट सिद्धि और नौ निधि और उन सभी शक्तियों का ज्ञान दे सके।
    हम सबको यह पता है कि वैदिक युग में समाज को चार अलग अलग वर्ग में बांटा गया था ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र यहां पर ब्राह्मणों का कर्तव्य होता था कि वह वैदिक रीति को आगे बढ़ाएं और क्षत्रियों का कर्तव्य था कि वह धर्म युद्ध के मार्ग पर चलकर अन्याय के विरुद्ध लड़े परंतु यहाँ पर इकलौते ऐसे ऋषि थे जिन्हें ब्रह्मऋषि तो कहा ही जाता है साथ ही ब्रह्म क्षत्रिय भी कहा जाता है और वे थे परशुराम ऐसा कहने के पीछे दो कारण हैं पहला उनके पिता ऋषि जमदग्नि एक ब्राह्मण थे और उनकी माता रेणुका एक क्षत्रिय थे वहीं दूसरी ओर पर
    सूरत में दो तरह के गुण थे पर हर तरह के वैदिक मंत्रों की जानकारी रखने के साथ साथ अस्त्र शस्त्र और युद्ध नीतियों में भी कुशल थे। 
    बल्कि वह तो एक ऐसे योद्धा थे जिनके सामने कभी कोई टिक नहीं सकता था परशुराम के बारे में कहा जाता है कि उनकी मां का अपमान और अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने यह प्रतिज्ञा ली थी कि वह इक्कीस बार इस दुनिया को क्षत्रियों से विहीन कर देंगे।
    यानी क्षत्रियों का पूरी तरह से नाश कर डालेंगे और ऐसा करते करते भगवान परशुराम भूल गए कि वह ऐसा इक्कीस बार कर चुके हैं। तब हनुमान जी आए और उन्होंने परशुराम को याद दिलाया कि आपकी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई अब उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
    भगवान परशुराम ने ये सब कुछ भगवान शिव के धनुष पिनाका और अपने पशु के सहारे किया था परशुराम को त्रेता युग का सबसे पहला विष्णु अवतार माना जाता है और त्रेता युग का सबसे अंतिम विष्णु अवतार थे श्री राम और इन दोनों के जन्म के बीच कई लाख साल का अंतर था। अब परशुराम शांत होकर अपना पिनाका राजा जनक को देखकर वहां से महेंद्र पर्वत चले गए फिर भगवान राम और सीता का जन्म हुआ राम ने कैसे धनुष तोड़ा यह कहानी तो हम सब जानते पिनाक धनुष टूटने के बाद विष्णु के पहले अवतार और विष्णु के अवतार श्री राम की भेट हुई थी।
    यहां पर परशुराम श्री राम पर खिन्न हो उन्हें वैसे भी पहले से ही क्षत्रियों से तकलीफ थी और राम भी क्षत्रिय थे । ऐसे में परशुराम उन पर बरस पड़े फिर उन्हें समझाया गया कि उनका उद्देश्य था वह ऐसे क्षत्रियों का नाश करना था तो समाज में अत्याचार फैला रहे थे परंतु राम एक आदर्श राजा है वो अपनी प्रजा की देखभाल करते तब क्षत्रियों को लेकर उनकी सोच बदली फिर जाकर वह शांत हुए और उसके बाद वह वापस महेंद्र पर्वत की ओर चले गए।
    लेकिन परशुराम की कहानी यहीं पर समाप्त नहीं होती बल्कि महाभारत में भी उनकी बहुत सी कहानियां सामने आती है वह भारत के कुछ महान जैसे भीष्म पितामाह करण और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य को भी परशुराम ही युद्ध विद्या की सीख दी थी। 
    बल्कि एक बार दो भीष्म पितामह और परशुराम के बीच युद्ध भी हुआ था।
    उसके बाद परशुराम का इस दुनिया को छोड़कर चले जाने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता बल्कि महाभारत में भी यह लिखा हुआ है कि वह महेंद्र पर्वत चले गए  ताकि अपनी तपस्या पूरी कर सके।
    अपनी तपस्या में लीन परशुराम आज भी किसी की प्रतीक्षा में रूके हुए कहा जाता है कि उनके जन्म के दो उद्देश्य पहला उस समय जो क्षत्रिय अत्याचार कर रहे थे उनका नाश कर उन्हें सबक सिखाना और दूसरा भगवान विष्णु के सबसे अंतिम अवतार 

    कल्कि का युद्ध गुरु 

    बनना। परशुराम के पास भगवान शिव का पिनाका  और भी ऐसे अस्त्र शस्त्र है जिसकी विद्या उन्होंने भीष्म पितामह को दी थी बस उसी प्रकार कलियुग के अंत में कल्की के युद्ध गुरु बनने के उद्देश्य से आज भी परशुराम अपनी तपस्या में लीन है।
    आज यह महेंद्र गिरी पर्वत ओडिशा के गजपति डिस्ट्रिक्ट मै  स्थित है और मान्यता है कि परशुराम आज भी उन पहाड़ियों की सबसे ऊंचाई पर अपनी तपस्या में लीन रहते हैं लेकिन कभी किसी को दिखाई नहीं देते । अब प्रश्न यह उठता है कि यदि कोई उन्हें सच में महेंद्र गिरी में ढूंढता हुआ चला जाए तो क्या वो उसके सामने आएंगे।
     जब हम सात चिरंजीवी की बात करते हैं तो अक्सर उन लोगों की बात करते हैं जिन्हें मोटल होने का वरदान मिला था।
    जो किसी विशेष लक्ष्य के कारण आज भी जीवित है लेकिन इन चिरंजीवी की लिस्ट में एक नाम ऐसा भी है जो वरदान के कारण नहीं बल्कि एक श्राप के कारण आज भी जीवित है और उनका नाम है अश्वत्थामा। जो अपने आप में बहुत शक्तिशाली था। जो पांडवों और कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य का बेटा था
    जिसके पास असीम शक्तियां भी यहां तक कि उसे ब्रह्मास्त्र का उपयोग करना भी आता था। पर उसने कुछ ऐसी गलतियों की जिसके लिए उसे श्री कृष्ण में एक श्राप दिया आज अगर आपसे कोई कहे कि किसी एक शख्स ने सोते हुए पांच बच्चों को जान से मार दिया तो आप क्या कहेंगे आप कहेंगे कि वह कितना निर्दयी होगा उसमें इंसानियत होगी ही नहीं क्योंकि कोई भी जीता जागता इंसान ऐसा काम करने से पहले कई बार सोचेगा।
    खासतौर पर जब बच्चों को मारने की बात आती है तो लोग उनका मासूम चेहरा देखकर ऐसा कर नहीं पाते कई बार टेररिस्ट भी बच्चों को छोड़ देते हैं लेकिन अश्वत्थामा की कहानी कुछ ऐसी ही है अश्वत्थामा ने महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़ाई की अश्वत्थामा ने कौरवों को जिताने का भरसक प्रयास किया और काफी हद तक उन्होंने पांडवों को नुकसान भी पहुंचाया क्योंकि जैसे हम बात कर चुके हैं उनके पास ब्रह्मास्त्र था। और भी बहुत सारे डिवाइन अस्त्र शस्त्र थे जिनकी उन्हें जानकारी थी लेकिन फिर भी सच्चाई की जीत हुई पांडव जीते और कौरव हार गए और अश्वत्थामा को यह हार बर्दाश्त न हुई वह अपने सबसे अच्छे मित्र दुर्योधन को युद्ध भूमि में दर्द में तड़पता देख विचलित हो उठे और उन्होंने दुर्योधन से प्रतिज्ञा की कि वह पांडवों के वंश का नाश कर देंगे। और इसके लिए वह चले गए पांडवों के शिविर की और पांडवों के सोते हुए पांच बच्चों को उन्होंने मार दिया लेकिन उसके बाद भी अश्वत्थामा को शांति नहीं मिली अर्जुन के बेटे अभिमन्यु की विधवा पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहा बच्चा जिसका नाम बाद में परीक्षित रखा गया अश्वत्थामा उसे भी मारना चाहता था और इसके
    के लिए उसने ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया। श्री कृष्ण ने परीक्षित को तो बचा लिया लेकिन पांडवों के पांच बच्चों को मार के और परीक्षित को मारने का प्रयास करने को लेकर श्री कृष्ण अश्वत्थामा से बहुत खिन्न हुए क्रोधित हुए और अश्वत्थामा को श्राप दिया। श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम्हें अपनी हार बर्दाश्त नहीं है तुम्हें दुर्योधन का दर्द बर्दाश्त नहीं है। लेकिन तुम इसी दर्द के साथ इस ब्रह्मांड के अंत तक जीवित रहोगे तुम्हे अमरत्व का वरदान नहीं मिलेगा अपितु अमरत्व का श्राप मैं तुम्हें देता हु। श्रीकृष्ण ने यह भी कहा था कि तुम कुष्ठ रोग के साथ जीवित रहोगे और अपने इलाज के लिए इधर उधर घूमते रहेंगे ऐसा कहते हुए उन्होंने अश्वत्थामा के माथे पर जो मणि थी उसे निकाल लिया ।
    भारत की कुछ कथाओं में यह भी कहा जाता है कि द्रोणाचार्य को एक ऐसे बच्चे की चाहत थी जो चिरंजीवी भी हो जिसे कोई मार न पाए जिसे किसी देवी देवता का डर ना हो जो असीम शक्तियों से संपन्न हो और इसी चाहत में उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की और शिव ने उन्हें अश्वत्थामा का वरदान दिया।
    अश्वत्थामा जब जन्मे थे उनके सिर पर एक मणि थी उस मणि के बारे में कहा जाता है कि उसके होते हुए अश्वत्थामा को कोई नहीं हरा सकता था वह किसी भी रोग से परेशान नहीं होते थे उन्हें बीमारियां घेर लेती नहीं थी। 
    अगर अश्वत्थामा जीवित है और वह इधर उधर भटकते रहते हैं तो क्या वह कहीं किसी को दिखाई देते हैं इसे लेकर बहुत से लोग दावा करते हैं । मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में असीर का एक किला है जहां भगवान शिव का एक बहुत प्राचीन मंदिर स्थित है।
    बताया जाता है कि अश्वत्थामा और सुबह यहां पूजा करने आते हैं।
    पुजारी के आने से पहले शिव पर हर रोज फूल चढ़ा हुआ मिल है।
    इसे समझने के लिए बहुत से न्यूज चैनल ने रात से सुबह तक का वीडियो भी तैयार किया और उन्हें कुछ समझ नहीं आया सिवाय इसके कि सुबह द्वार खुलने पर ताजा भगवान शिव के ऊपर चढ़ा हुआ है और इसी मंदिर के आसपास एक अजीब से बारह से चौदह फीट लंबे इंसान को कई बार देखा गया है जो लोगों से हल्दी और तेल मांगता है।
    कुछ लोग यह भी दावा करते हैं कि पास के तालाब में अश्वत्थामा को उन्होंने नहाते हुए भी देखा है । इसके साथ ही मध्य प्रदेश के एक आयुर्वेदिक डॉक्टर और गुजरात के एक रेलवे इंजीनियर ने भी ऐसा ही कुछ दावा किया है यहां तक कि भारत के एक महान योद्धा पृथ्वी राज के जीवन पर लिखी गई बहुत ही बेबस किताब पृथ्वी राज रसूल में भी अश्वत्थामा का उल्लेख मिलता है इस किताब में बताया गया है कि जब पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गौरी से में युद्ध के बाद भटकते हुए जंगल की ओर चले गए तब उनकी भेंट जंगलों में अश्वथामा से हुई थी। 
    बताया जाता है कि पृथ्वीराज चौहान ने अश्वत्थामा के सिर पर मणि के निकलने का घाव और उस पर हुए इन्फेक्शन का इलाज करने की पूरी कोशिश की थी क्योंकि पृथ्वी राज अपने आप में एक बहुत बड़े आयुर्वेदाचार्य थे। पर घाव भरे और उसके बाद अश्वत्थामा अपना परिचय उन्हें देकर वहां से चले गए।
      विभीषण को भी रामायण का एक इम्पोर्टेन्ट कैरेक्टर माना जाता है। रावण के भाई थे और रावण और राम के बीच जो युद्ध हुआ था उसमें विभीषण ने राम की बहुत सहायता की थी लंका की हर महत्वपूर्ण जानकारी और रावण की कमजोरी से उन्होंने राम को परिचित करवाया था। और इस बात से श्री राम अति प्रसन्न थे। वह विभीषण को अपना सबसे अच्छा मित्र मानते थे।
    इतनी कहानी तो हममें से हर कोई जानता है और आप यह भी जानते होंगे कि युद्ध में श्री राम के हाथों रावण के मारे जाने के बाद श्री राम ने विभीषण को लंका का राजा बनाया था विभीषण को लंका का राजकाज देख रहे थे। परंतु उन्हें राम के दर्शन की आदत हो गई थी। जब भी उन्हें अवसर मिलता वह लंका से तुरंत अयोध्या भाग जाते और श्री राम के दर्शन किया करते हैं पर अब राम इस दुनिया को छोड़कर जाने लगे थे।
    विभीषण को जब यह बात पता चली तो हनुमान की भांति वह भी बहुत दुखी हुए और उन्होंने श्री राम से कहा कि ऐसे मैं तो जीवित नही रह पाऊंगा। मुझे भी आप अपने साथ ले चलिए तब श्री राम ने कहा नहीं आपके जाने का समय अभी नहीं आया है।
    जैसे रावण और मेरे युद्ध में आपने मेरी सहायता की थी वैसे ही कलियुग के अंत में एक बहुत भीषण युद्ध होगा जिसमें धर्म और धर्म की एक बार फिर लड़ाई होगी और उस समय अधर्म को हराने के लिए आपको एक बार फिर मेरे ही एक अवतार का साथ देना होगा। वैसे ही सहायता करनी होगी जैसे आपने इस युद्ध में मेरी की।  एक और कहानी है जो कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों में पढ़ी जा सकती है । उस कहानी के हिसाब से रावण अपने भाई विभीषण से बहुत भिन्न थे क्योंकि उन्हें लगता था कि विभीषण ने उनके साथ धोखा किया है और राम को जाकर लंका के बारे में सब कुछ बताया है रावण की कमजोरी और रावण को हराने में राम की सहायता विभीषण ने ही की है। 
    इस बात से खिन्न होकर रावण ने मरते समय विभीषण को श्राप दिया था कि तुम बिना परिवार के हमेशा ब्रह्मांड के अंत तक इस दुनिया में जीवित रहोगे। कहानियां अलग अलग है परन्तु विभीषण के जीने का उद्देश्य एक है और वह कलियुग के अंत तक कल्की की प्रतीक्षा है। और उसी प्रतीक्षा में विभीषण आज भी रूके हुए हैं। विभीषण चिरंजीवी क्यों है यह तो हमने जान लिया अब प्रश्न यह उठता है कि बाकियों की तरह वो रहते कहा है तो कहा जाता है कि विभीषण को अगर देखना है तो आप उन्हें हर रोज सुबह जगन्नाथ स्वामी के मंदिर के आसपास देख तो नहीं सकते पर महसूस अवश्य कर सकते हैं। विभीषण आज भी लंका में रहते हैं वह इस प्रतीक्षा में लगे हुए है कि वह कब दुनिया के सामने आए।
     वेदव्यास जिन्हें कृष्ण द्वैपायन के नाम से भी जाना जाता है। एक ऐसा नाम जो भारतीय साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है। वेदव्यास जी को उनकी डिवाइन नॉलेज और बुद्धि के लिए जाना जाता है। आप यह तो अच्छी तरह से जानते होंगे कि वे एक श्रुति शास्त्र है मतलब वेद को सुना गया था। रिटर्न फॉर्म में मौजूद नहीं थे। वेदव्यास ने ही इन वेदों को चार अलग अलग भागों में लिखा जिन्हें हम ऋग्वेद अथर्ववेद यजुर्वेद और सामवेद के नाम से जानते हैं। इसके बाद वेद जोगी आम लोगों के लिए बढ़ाने में काफी कठिन थे उन्हें अलग अलग पुराणों में बांटकर लिखने वाले भी वेदव्यास ही है बल्कि इन्हें महाभारत के लेखक के रूप में भी जाना जाता है। हालांकि कहीं कहीं पर वेद व्यास को विष्णु जी के चौबीस अवतारों में से इक्कीस वे अवतार के रूप में भी जाना जाता है वेदव्यास जी का जन्म भारत के उत्तर प्रदेश के कालपी शहर में हुआ था। वेद व्यास अपने पिता ऋषि पराशर की तरह बहुत बड़े ज्ञानी थे। वह प्राचीन भारत के सबसे बड़े कवि और लेखक माने जाते हैं। महाभारत जो इस दुनिया का सबसे बड़ा ग्रंथ है उसे भी उन्होंने ही लिखा है।
    भारत के अलावा वेद व्यास ने अट्ठारह पुराणों की रचना भी की कुछ लोगों का कहना है कि वेद व्यास में एक लंबा जीवन बिताया और एक सौ सोलह वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई
    पर पौराणिक कथाओं के अनुसार उन्हें चिरंजीवी की सूची में भी सम्मिलित किया गया है । कहा जाता है कि वो वेद और पुराणों का ज्ञान पूरी दुनिया में बांटने के लिए वेद पुराण को हमेशा ब्रह्मांड के अंत तक बनाए रखने के लिए आज भी जीवित है।
    कुछ लोगों का मानना है कि ओडिशा और छत्तीसगढ़ में फैला हुआ एक घना जंगल जो दंडक वन के नाम से जाना जाता है। वहां आज भी वेदव्यास रहते हैं।
    भारत और चीन के बॉर्डर के पास उत्तराखंड में एक गाँव है जिसे माणा गांव के नाम से जाना जाता है । जहां पर अलकनंदा और सरस्वती नदी आपस में मिल जाती है। वहीं इनके मिलने से जो केशव प्रयाग बनता है। उसके तट पर बद्रीनाथ से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर बसा हुआ यह छोटा सा गांव है। बहुत पहाड़ी के ऊपर एक छोटी सी गुफा है जिसे वेद व्यास की गुफा के नाम से जाना जाता है। आज इसी गुफा के पास व्यास जी का मंदिर भी बना हुआ है। माना जाता है कि इसी गुफा के आसपास आज की सभ्यता और आजकल लोगों से दूर वेदव्यास अदृश्य रूप में रहते हैं और अपने पढ़ने लिखने के काम में ही व्यस्त है।इनका भी उद्देश्य कल्की से मिलना और उन्हें वेदों का ज्ञान देना है।
     अब अगर राजा बलि की बात करें तो इनके बारे में तो हम सब जानते ही है राजा बली जिन्हें महाबली के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय पौराणिक कथाओं में या यूं कहें कि इंडियन माइथोलॉजी में एक महान राजा के रूप में भी जाने जाते थे।
    उन्हें भक्ति का प्रतीक माना जाता है । उनकी कहानी सदियों से बताई और दोहराई जाती रही है जो लोगों को दया और करुणा के साथ अपना जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है । इनकी कहानी उनके दादा प्रहलाद से शुरू हुई थी जो भगवान विष्णु के भक्त थे। भक्त प्रह्लाद के बेटे का नाम भी रोशन था कि रोशन काफी विशालाक्षी से हुआ और उन दोनों ने एक बेटे को जन्म दिया जो आगे चलकर  राजा बली बना लेकिन विरोचन को देवराज इंद्र ने धोखे से मार दिया जिसका बदला लेने के लिए राजा बलि ने देव लोक पर भी आक्रमण किया था और ऐसे राजा बली जो पृथ्वी को पहले ही जीत चुके थे वे तीनों लोगों के सम्राट बन गए।
    बहुत अधिक शक्तिशाली थे और इसी के बल पर उन्होंने तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित किया। विश्व के प्रति अपने दादा की भक्ति विरासत में मिली थी और वह बड़े होकर एक न्यायप्रिय दयालु शासक बने एक बार विष्णु ने स्वयं बली की भक्ति की परीक्षा ली और वह मतलब एक बौने ब्राह्मण के रूप में उनके सामने प्रकट हुए वामन ने बलि से उपहार मांगा और उस उपहार में उन्होंने अपने रहने के लिए तीन पग भूमि मांगी बलि ने एक उदार दयालु राजा होने के नाते बावन की बात मान ली थी हालांकि जैसे ही उसने ऐसा किया बावन ने स्वयं को
    शुरू के रूप में प्रकट कर दिया और अपने पहले पग से पूरी पृथ्वी को दूसरे पग से स्वर्ग को नाप लिया अपना तीसरा कदम रखने के लिए कोई जगह न होने के कारण विष्णु ने बलि से अपना सर उन्हें दे दिया और तब विष्णु में अपना पैर बलि के सिर पर रखा और उसे पाताल लोक भेज दिया । वहां भी विष्णु जी ने उसे बंदी बनाकर रखा पर कुछ समय पश्चात जब देवर्षि नारद के परामर्श से बलि ने भगवान की आराधना की तब उन्होंने उसे स परिवार पाताल लोक में वास करने की स्वतंत्रता दे दी हालांकि वह बली कि निस्वार्थता और भक्ति से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बलि को माता भी प्रदान कर दी। 
    बली ने उपहार के रूप में यह भी मांगा कि वह वर्ष में एक बार धरती पर आकर अपने लोगों से मिल पाए जिस पर विष्णु जी ने उसे अनुमति दे दी जब उन्हें चिरंजीव में गिना जाता है तो यह सवाल भी बनता है कि अब वो कहां हो सकते हैं।
    ओणम के नाम से जाना जाने वाला यह त्योहार आज भी भारत के कई हिस्सों में मनाया जाता है।
    त्योहार के दौरान लोग बली की वापसी का स्वागत करने के लिए अपने घरों को फूलों से सजाते और दीपक जलाते हैं वे लोग बड़ी बड़ी दावतें तैयार करते हैं और पारंपरिक नृत्य भी करते हैं और निस्वार्थता और भक्ति की भावना का जश्न मनाते है जिसे बली ने स्वयं मूर्तरूप दिया केरल में मनाया जाने वाला
    यह त्योहार पूर्ण रूप से राजा बलि को ही समर्पित है वह लोगों के दिलों में अब भी जीवित है।
    कई मायनों में ओणम की परंपराओं और रीति रिवाजों के माध्यम से बली की विरासत जीवित है।
    राजा बली आज भी जीवित है और वे पाताल लोक में रहते हैं। पौराणिक मान्यताओं की मानें तो यह भी कहा जाता है कि राजा बली कल्कि अवतार के दौरान सबके सामने आएंगे और कल्की को कली राज से लड़ने के लिए डिवाइन अस्त्र शस्त्रों का ज्ञान देंगे।
    अगर आपने महाभारत की कहानियां सुनी है या महाभारत टेलीविजन पर देखा जाए तो आपने कृपाचार्य का नाम तो अवश्य सुना होगा, गुरु कृपाचार्य कौरव और पांडवों के गुरु थे। जिन्हें कृपा के नाम से भी जाना जाता है भारतीय प्राचीन कथाओं में उन्हें एक महान शक्तिशाली इंसान माना गया है। 
    गुरु कृपा चार्य को उनके महाकाव्य कविता महाभारत में कौरव और पांडव राजकुमारों के शिक्षक और मेंटोर के रूप में जाना जाता है।
    महाभारत काल के दौरान उनके ज्ञान और कौशल की हमेशा मांग बनी रही।
    उन्होंने अपने ही शिष्य अर्जुन के साथ भीषण युद्ध किया था
    और उनके जीवन को समझने के बाद सवाल यह उठता है कि भारतीय प्राचीन कथाओं के अनुसार वह चिरंजीवी क्यों है और इस समय वह कहां है साथ ही चिरंजीवी होने के पीछे उनका लक्ष्य क्या है।
    कुछ परंपराओं के अनुसार कहा जाता है कि गुरुकृपाचार्य अपनी मृत्यु के बाद स्वर्ग में वास करने लगे थे जहां अबोध देवताओं के सलाहकार के रूप में काम करते हैं । कुछ धर्म ग्रंथों का मानना है कि वह कौरवों के साथ खडे अवश्य थे परन्तु उन्होंने कभी भी पांडवों के साथ अन्याय नहीं किया उनकी इस भावना को देखते हुए श्री कृष्ण ने उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान दिया था। अब वो कहां है इस बात को लेकर ज्यादा जानकारी नहीं मिली लेकिन कहा जाता है कि सभी चिरंजीवी के साथ वह भी हिमालय की ही किसी पवित्र पहाड़ी पर अपनी तपस्या में लगे हुए हैं ताकि जब आवश्यकता हो वह वापस आ सके और उनकी भी आवश्यकता कल्की के काल में ही पड़ने वाली है। हमने अभी अभी सात चिरंजीवी की बात कही अब यहां पर सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि चिरंजीवी होने का क्या मतलब है।

    चिरंजीवी होने का क्या मतलब है 

    या फिर हम यूं कहें कि अमरत्व को प्राप्त करने का क्या अर्थ है।
    अगर एक लाइन में इसका जवाब दे तो इसका सीधा सा मतलब है कि आप समय को मात देकर युगों तक जीवित रह सकते हैं।

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